कनकभवन में गाये जाने वाले नित्य नियम के पद
(समय-समय पर यह सब पद गाये जाते हैं। नित्य गान कीर्तन आदि के लिये गायक नियुक्त हैं जो प्रातः से शयन पर्यन्त नित्य राग-रागनियों में पद गाते हैं।)
प्रातःकाल जगाने के पद
(1)
श्लोक-
बन्दे सखीसमाजं तं प्रेमरज्वा वशीकृतम्।
वबन्ध क्रीडामानो यो श्रीरामं रससागरम्।।
दोहा-
जय जय जय रस-रंगमय, सकल सखी सुखखानि।
बंदौ सबके पदकमल, करहु कृपा जन जानि।।
सुन्दर शयन निकुंज में, सेज लसत सुकुमार।
बीती रजनी रंग में, सोये सुख के भार।।
कनकभवन मणिमय छटा, शयनकंुज के द्वार।
सखी जगावैं मंद स्वर, करि वीणा झनकार।।
(2)
युगल वर जागिये बलि जाऊँ।
चंद मंद दुति दीपक छवि बिन, विकसित कमल लखाऊँ।।
रैनि गई अब जागो प्यारे, दर्शन करि सुख पाऊँ।
उड्डगण गये गाय निशि गुणगान, मैं अब प्रभु गुण गाऊँ।।
पंछी कलरव करत मनोहर, कोकिल तान सुनाऊँ।
”रामबल्लभाशरण“ प्रेमनिधि, प्रेम सुमन बरषाऊँ।।
(3)
जागो जागो जागो श्याम जानकीविहारी।
कुन्दमाल पीतमाल कमल केतकी गुलाब, विकसित बन मोद भ्रमर गुंजत छवि न्यारी।
बोलत सारी मयूर, कोकिला मराल कीर, कूजत अलि रटत नाम श्री जनकदुलारी।।
मंगलमय साज साजि, ठाढ़ी सब दरस काज, करहिं मधुर स्वरन गान, जागो लाल प्यारी।।
जागे करुणानिधान, निरखहिं छवि सखि सुजान, ”रामचरण“ दम्पति पर तन मन धन बारी।।
(4)
सुनि सखियन की गान धुनि, प्रीतम उठ सप्रीति।
निरखि प्रिया छबि छकि रहे, भव्य भावना रीति।।
मणिमय मन्दिर जगमगै, मणिदीपन की जोति।
अलकैं झलकैं बदन पर, लखि छकचैंधी होति।।
झुकत झूमि दृग रस भरे, मंद हँसनि रस देत।
‘कनकभवन’ सुख सेज पर, सोहत कृपानिकेत।।
प्रातःकाल जगाने के बाद के पद
(5)
आसपास सहचरी सब नूपुर झनकार करैं,
चम्पे की कली स्त्री मानों फूली वे समान की।
सौधन की लपटैं री दपटि भीर भौंरन की,
बीनादिक बजन लागे उधटित कल गान की।।
गोखन झरोखन के परदे उधारि दिये,
शोभा उभरन लागी कोटि शशि भान की।
मिटे हैं अमंगल भये मंगल ”किशोर शूर“,
जगमगाये उठे महल जागीं श्री जानकी।।
(6)
जगमगाय उठे महल जागीं श्री जानकी।
कनकभवन कलश ऊपर किरण परी भान की।।
अष्टसखी चँवर करै, सेज सुख निधान की।
आसपास फूले फूल, कंुज छवि लतान की।।
छाई धुनि अवधपुर के नारिन के गान की।
बरषैं सुरनारि सुमन, शोभा आसमान की।।
सकल देव करैं सेवा, चैकी हनुमान की।
सियमुख पर वारौं, दुति कोटि चन्द्रभान की।।
”तुलसीदास“ विनय करत, गति न मोहिं आनकी।
जय जय जय स्वामिनी जय, वल्लभा प्रिय प्रानकी।।
(7)
भोर जानकी जीवन जागे।
सूत मागध प्रवीण वीण वेणु ध्वनि द्वारे, गायक सरस राग रागे।।
श्यामल सलोने गात आलस बस जँभात, प्रिया प्रेम रस पागे।
उनींदे लोचन चारु, सुषमा शृंगार हेरि, हेरि हारि मार भूरि भागे।।
सहज सुहाई छवि, उपमा न लहै कवि, मुदित विलोकन आगे।
”तुलसीदास“ निसिवासर अनूप रूप, रहत प्रेम अनुरागे।।
(8)
बाल भोग कीजै रघुवीर।
कनकभवन में रतन सिंहासन, संग सखिन की भीर।।
मेवा रस पकवान मिठाई, अरु अमृत सम खीर।
सुन्दर सरस सलोने व्यंजन, परसहिं सखि मति धीर।।
करि विनोद सखि हँसहिं हँसावहिं, लीला रस गम्भीर।
”अग्रअली“ सन्मुख भरि झारी, ठाढ़ी लीन्हें नीर।।
(9)
रँगीले लाल बीरो लीजे मेरे कर से।
नागर पान सुगन्ध सुपारी, मधुर मसाला सरसे।।
मोती को चूना मनहर कत्था, पावत अति हिया हरषे।
”अग्रअली“ सियपिय मुख दीनी, अघरन पर रंग बरषे।।
शृंगार आरती के बाद की स्तुतियाँ
(10)
भइ प्रकट कुमारी भूमि बिदारी, जन हितकारी भयहारी।
अतुलित छवि भारी मुनिमनहारी जनकदुलारी सुकुमारी।।
सुन्दर सिंहासन तेहिं पर आसन, कोटि हुतासन दुतिकारी।
शिर छत्र बिराजै सखिगण राजैं निजनिज काजैं करधारी।।
सुर सिद्ध सुजाना हनहिं निशाना चढ़े विमाना समुदाई।
वरषहिं बहुफूला मंगलमूला, अनुकूला सिय गुन गाई।।
देखहिं सब ठाढ़े लोचन गाढ़े सुख बाढ़े उर अधिकाई।
अस्तुति मुनि करहिं आनन्द भरहिं पायन परहीं हरषाई।।
ऋषि नारद आये नाम सुनाये सुनि सुख पाये नृपज्ञानी।
सीता अस नामा पूरनकामा सब सुखधामा गुणखानी।।
सिय सन मुनिराई विनय सुनाई समय सुहाई मृदुबानी।
लालनि तनु लीजैचरित सु कीजै, यह सुख दीजै नृपरानी।।
सुनि मुनिवर वानी सिय मुसकानी, लीला ठानी सुखदाई।
सोवत जनु जागी रोवन लागी, नृप बड़भागी उर लाई।।
दम्पति अनुरागे प्रेम सुपागे तेहि सुख लागे मन भाई।
अस्तुति सिय केरी प्रेम लतेरी बरनि सुचेरी सिर नाई।।
लिज इच्छा मख भूमि ते प्रकट भई सिय आय।
चरित किये पावन परम बरधन मोद निकाय।।
(11)
भये प्रकट कृपाला, दीनदयाला कौशिल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनिमनहारी, अद्भुत रूप निहारी।।
लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा, निज आयुध भुज चारी।
भूषण वनमाला नयन विशाला शोभासिन्धु खरारी।।
कह दुई कर जोरी अस्तुति तोरी केहि विधि करौं अनन्ता।
माया गुण ज्ञानातीत अमाना वेद पुराण भनन्ता।।
करुणा सुखसागर सब गुण आगर जेहि गावहिं श्रुति सन्ता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी प्रकट भये श्रीकन्ता।।
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया, रोम रोम प्रति वेद कहै।
मम उर सो वासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै।।
उपजा जब ज्ञाना प्रभु मुसुकाना, चरित बहुत विधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुनाई मातु बुझाई, जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।
माता पुनि बोली सो मति डोली, तजहु तात यह रूपा।
कीजै शिशुलीला अति प्रिय शीला, यह सुख परम अनूपा।।
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा।।
व्रिप धेनु सुर सन्त हित लीन मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुण गोपार।।
नित्य सायंकाल की स्तुति
(15)
वन्दे विदेहतनयापदपुण्डरीकं। कैशोरसौरभसमाहृतयोगिचित्तम्।।
हन्तुं त्रितापमनिशं मुनिहंससेव्यं। सन्मानिशालिपरपीतपरागपुजंम्।।
दूर्बादल द्युतितनुं तरुणाब्जनेत्रं। हेमामबराम्बरविभूषषितांकम्।।
कन्दर्पकोटिकमनीय किशोर मूर्ति पूर्ति मनोरथभवा भजु जानकीशम्।।
पद
(16)
जै श्री जानकी बल्लभ लाल।।
मणि मन्दिर श्री कनक महल में, विपुल रंगीली बाल।
जै श्री जानकी बल्लभ लाल।।
कोई गावत कोई वीणा बजावति कोई मृदंग करताल।
जै श्री जानकी बल्लभ लाल।।
श्री युगल प्रिया रिझवति दोउ लालन, छवि लखि भई सो निहाल।
जै श्री जानकी बल्लभ लाल।।
(17)
रंग भरि जोड़ी सदा चिरजीबो।
सदा बिहार करो रंग मन्दिर नित्य किशोर किशोरी।।
सदा चिर.।।
सदा सुहागिन की अनुरागिन, रंगी रहो बड़ भाग बड़ोरी, आलि भाग बड़ोरी प्यारी, भाग बड़ोरी।
सदा चिर.।।
प्रिय के प्राण बसों सिय सुन्दरि, सिय मन श्याम बसोरी।।
सदा चिर.।।
पिय की चाह सुचातिक लों रहि, सिय जू की माया स्वाति बरसो री, आलि स्वाति बरसो री प्यारी, स्वाति बरसो री।।
सदा चिर.।।
सिय मुख चन्द सुधारस द्रवो नित, पिय की नयन चकोरी।।
सदा चिर.।।
हमरे नयन प्राण को सरबस, अधिक अधिक रस सुख सरसो री आलि सुख सरसो री प्यारी, सुख सरसो री।।
सदा चिर.।।
श्री कृपानिवास उपास महल की, टहल लगो सी लगो री।।
सदा चिर.।।
(18)
ललि लालन की जोड़ी मुबारक रहै। प्रिया प्रियतम की जोड़ी मुबारक रहैं।।
श्री जनक नगरिया बिमल बहरिया, ललित लहरिया श्री कमला बहैं।।
श्री अवध नगरिया बिमल बहरिया, ललित लहरिया श्री सरयू बहैं।।
श्री कनक महलियां रंग भरि अलिया, नित नई विमल बहारैं लहैं।।
तकनि झकनि मृदु हँसनि परस्पर, प्रेम सुधा रस धारैं बहैं।।
छकै जो यहि रस फिर न झँकैं जग, श्रीकान्तिलता जो चहैं सो लहैं।।
(19)
मैं वारि युगल पर वारि। भूपति जू के श्याम सुन्दर बर, गोरी श्री जनकदुलारी।।मैं.।।
नवल निकुंज नवल वनिता प्यारी, चहुंदिशा लसत अति प्यारी।।मंै.।।
गान सरस वीणा मृदंग धुनि, श्री युगलप्रिया बलिहारी।।मैं.।।
(20)
जय जनकनंदिनी जगतवंदिनी, जन अनंदिनी जानकी।
रघुवीर नयन चकोर चंदिनि, बल्लभा प्रिय प्रान की।
तव कंज पद मकरन्द स्वादित, योगिजन मन अलि किये।
करि पान गनत न आनहीं, निर्वाण सुख मानत हिये।
ब्रह्मादि शिव सनकादि सुरपति, आदि निज मुख भाषहिं।
तब कृपा नयन कटाक्ष चितवनि, दिवस निशी अभिलाषहीं।
तनु पाय तुमहिं विहाय जड़मति, आन मानहिं देवहीं।
हत भाग्य सुरतरू त्यागि करि, अनुराग रेड़हिं सेवहीं।
सुखखानि मंगलदानि जन, जिय जानि शरण जे जात हैं।
तव नाथ सब सुख साथ करि, तेहि हाथ रीझि बिकात हैं।
यह आस ”रघुवरदास“ की, सुखराशि पूरन कीजिये।
निज चरण कमल सनेह, जनक विदेहजा वर दीजिये।
(21)
श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं।
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं।।
कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं।
पट पीत मानहु तडि़त रुचि सुचि नौमि जनकसुतावरं।।
शिर क्रीट कुण्डल तिलक चारु उदार अंग विभूषणं।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं।।
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दलन दुष्ट निकन्दनं।
रघुनंद आनन्द कन्द, कौशल चन्द दशरथनन्दनं।।
इति वदति तुलसी दास शंकर शेष मुनि मन रंजनं।
मम हृदय कंज निवास करु कामादि खल दल गजनं।।
(22)
”कनकभवन“ नव सुमन कुंज मंे, खेलत खेल किशोर किशोरी।
लीन्हे कर कमलन बहु कमलन, करत केलि रस सिन्धु हिलोरी।।
पीत पद्म लै लाल चलावत, प्यारी ओर सुलक्ष्य बनाई।
आंगन रंग मिलावत हँसि हँसि, अद्भुत आनन्द उर न समाई।।
जनकनन्दिनी नील नलिन लै, श्री रघुनन्दन ओर चलायो।
ललित कपोलन लगत मिल्यो रंग, निरखत प्रिया हास बरषायो।।
फूलन खेलत फूलत हैं हिय, प्रीति बढ़ावत करि चितचोरी।
द ृग ”जयरामदेव“ सखियन के, निरखहिं छवि ज्यों तृषित चकोरी।।
(23)
युगल छवि देखत नयन सिरात।
जनु सुषमा सर मध्य लसत दोउ, नील पीत जलजात।
वदन किधौं छवि नगर बसत जहँ, सम्पति विविध लखात।
चोरि लेत चित को जब मृदु हँसि, करत परस्पर बात।
कबहुँ बैठि चैसर खेलत दोउ, हार जीत पक्षपात।
रूप भरी गुण भरी चतुराई, संग सखी दरसात।
विहरत ”कनकभवन“ आंगन में, कबहुं अटन चढि़ जात।
देखत फिरत ”रसिकअली“ तहँ तहँ, जहँ जहँ जात विभात।
(24)
ये दोउ चन्दा बसो उस मेरे।
दशरथ सुत अरु जनकनन्दिनी, अरुण कमल कर कमलन फेरे।
बैठै सघन कुंज सरजू तट, आसपास ललनागन घेरे।
ललित भुजा दिये अंग परस्पर, झुकि रह केश कपोलन नेरे।।
चन्न्द्रवति सखि चँवर डुलावति, चन्द्रकला तन हँसि हँसि हेरे।
‘रामसखे’ छवि कहि न परत जब, पान पीक मुख झुकि झुकि गेरे।।
(25)
जय जय रघुबर किशोर जनकनन्दिनी,
बिहरत नित अवध धाम सुषमा रति कोटि काम।
चपला घनश्याम गौर मोदकन्दिनी,
नील पीत वसन चारू ‘चन्द्रिका किरीट हार।
सुमन वाण गेंदपाणी रसिक रंजिनी,
गावत जेहि अज महेश ध्यावत श्रीयुत रमेश।
शारदा गणेश शेष रचि प्रबन्धिनी,
अगुण सगुण जासु अंश नारदादि मुनि प्रशंस।
हंस कुल वसंत केलि विश्वनन्दिनी
मुनिजन यह ध्यान धरत, बिनु श्रम संसार तरत।
गावत कल कीर्ति वेद, भव निकन्दिनी।।
(26)
युगल छवि आज अनूप बनी।
कनकभवन शृंगार कुंज में, बैठी बनी ठनी।।
आसपास सहचरी संग लिये, ठाढ़ी सौंज घनी।
”रसिकअली“ उर यह समाज बसो, लीला ललित मनी।।
सायंकाल ब्यारू के पद
(27)
शोभित आज मनोहर जोरी।
कनकभवन आनन्द मगन मन, राजत रसिक किशोर किशोरी।।
रसमय कोमल अंगन प्रफुल्लित, अवलोकनि रसकनि रस बोरी।।
जन ‘जयरामदेव’ उपमा नहिं, छवि पर वारों काम करोरी।।
दोहा- यहि विधि बीती निशि जबहिं कछुक घरी करि केलि।।
ब्यारू हित सब साज सजि, लाईं थार सहेलि।।
(28)
करत बियारी प्रियतम प्यारी
पुलिक परस्पर पाय पवावत, हँसति प्रफुल्लित मुख छवि भारी।।
चाखि चाखि व्यंजनन सराहत, सखिन चतुरता पर बलिहारी।
जन ‘जयराम देव’ सखि उचरहिं रसमय हास वचन रुचिकारी।।
दोहा- यहि विधि ब्यारू करि युगल, नयनन अति सुख देत।
कनक कटोरे दुग्ध सखि, लाईं प्रीति समेत।।
(29)
अमचन करत सिया रघुराई।
कंचन झारी जल सरजू की, सखी सुशीला लाई।।
चन्द्रकला कर देत अँगोछा, सुचि खरिका लैं आईं।
सुधामुखी सखि बिरियाँ पवावत, अतर देत सुखदाई।।
रूपशील शोभानिधि प्यारी, निरखत दृगन अघाई।
रामचरन सखि सुख सागर की, शीथ प्रसादी पाई।।
(30)
सुन्दर बदन विलोकि के नयनन फल लीजै।
जानकिबल्लभ लाल की सखि आरति कीजै।।
कुण्डल ललित कपोल पै झुकि अलक विराजै।
कण्ठा कण्ठ सुहावना गजमुक्ता राजै।।
पाग बनी जरितार की दुपटा जरतारी।
पटुका है पचरंग की मणि जटित किनारी।।
सिय जू के सोहै लाली चूनरी मणि ज्योति विराजै।
”रसिकअली“ जू की स्वामिनी अतुलित छवि छाजै।।
शयन समय के पद
(31)
अब हमारे प्राण प्रियतम प्यारे अलसाने लगे।
छिन हिं छिन अंगड़ाइयाँ ले ले के जमुहाने लगे।।
चंचलाहट हट गई उत्पन्न भोलापन हुआ।
नींद से माते नयन नव कंज सकुचाने लगे।।
दुसरी नौवत बजीं घडि़याँ लगीं दीन्हीं गजर।
पायरू आये अपर पहरे को बदलने लगे।।
रैनहू बीती बहुत नभ मध्य उड़गण छा गये।
गीत राग विहाग भी गायक गुनी गाने लगे।।
ले चलो ‘हरजिन’ उठा के प्यारे को सुख सेज पर।
सैन छवि निरखन को अब मम नयन ललचाने लगे।।
(32)
कनकभवन की विहारिणी श्रीस्वामिनी जू।
करुणा कृपालुता दयालुता की धाम है।।
भक्तन पे राखतीं सदैव ही दुलार अति।
सखिन पे राखतीं सनेह अभिराम हैं।।
करतीं सदैव ठकुराई सब लोकन की।
पापिन को पक्ष करिबे में सरनाम हैं।।
कवि ‘जयरामदेव’ जिनके स्वभाव ही पे।
रीझि रीझि मोहित ह्वै बिके प्रभु राम हैं।।
(33)
कमलदल नयनन नींद भरी।
कनकभवन सुख सुमन सेज पर, सिय पिय छवि छहरी।।
अधरन मंद हंसनि झलकैं, मुख चन्द्र किरण लहरी।
मानहुं शोभा सकल जगत की, अधरन समिटी ढरी।।
सजग भई सब द्वारपालिका, लेकर फूल छरी।
जनु ‘जयरामदेव’ थिर भइ आनन्द नदी गहरी।।
(34)
महल में शोर करौ जनि कोय।
कछुक रहस बस कछु आलस बस, जनकलली गई सोय।।
नूपुर दाबि चलौ मेरी सजनी, तनक झनक नहिं होय।
पहरे वाली सजग ह्वै रहियो, आवागमन न होय।।
नील मणिन के दीपक इत उत, अब धरि देहु संजोय।
‘अग्रअली’ आनन्द मगन मन, रहि रसि माहिं समोय।।
विनय अनुराग के पद
(36)
जै जै सदा करुणा की निधान कृपा रसरंग में बोरी की जै जै
जै जै सखनी की प्राण अधार प्रियामुखचन्द चकोरी की जै जै
जै जै महाछविराशिकलानिधि प्रीतम प्रेम विभारी की जै जै
जै जै सदा निमीबंश उजागरी श्री मिथिलेश किशोरी की जै जै
जै जै मनोहर सुन्दर श्यामल छैल छली सरकार की जै जै
जै जै सनेहिन के रसिया रस प्रेम के दानी उदार की जै जै
जै जै चमाचम कुन्डल क्रीट के धारी सुशोभा अपार की जै जै
जै जै सदा करुणामय श्री रघुनन्दन राजकुमार की जै जै
(37)
दृगन भरि छवि लखु सिया रघुवीर।
कनकभवन राजत प्रिया प्रीतम श्यामल गौर शरीर।।
फूल छरी राजत प्यारी कर प्रीतम कर धनु तीर।
अंग अंग नवरंग रंगे वर लसत सुरंग रंग चीर।।
नजर बाग अनुराग लाग फल नटत मोर कल कीर।
नरदेही सुमिरन बैदेही हेतु बदत मुनि धीर।।
हृदय पत्र लेखनी प्रीति तरु तत्व मसी मुद नीर।
जानकी वर दम्पति छवि सम्पति लिखि ले हियं तसवीर।।
(38)
चिरंजीवी हमारी, दुलारी सिया।
जाके हित मिथिलेश सुनैना, जन्म जन्म तप बहुत किया।।
गणपति गौरि महेश कृपा ते, पूरी भई अभिलाष हिया।
अब दिन दिन आनन्द बढ़त है, सुख पावत मिथिलेश जिया।।
महिमा जिनकी वेद बखानत, भक्तन हित अवतार लिया।
‘मधुरअली’ जिनके प्रिय दूलह, त्रिभुवनपति अवधेश पिया।।
श्रीजानकी-वन्दन
उद्भवस्थिति संहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करी सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।
श्रीरामचन्द्र स्तुति
नमामि भक्तवत्सलं कृपालु शील कोमलं,
भजामि ते पदांबुजं अकामिनां स्वाधामदं।
निकाम श्याम सुंदरं भवांबुनाथ मन्दरं,
प्रफुल्ल कंज लोचनं मदादि दोष मोचनं।।1।।
प्रलंब बाहु विक्रमं प्रभोऽप्रमेय वैभवं,
निषंग चाप सायकं धरं त्रिलोक नायकं।
दिनेश वंश मंडनं महेश चाप खंडनं,
मुनीन्द्र संत रंजनं सुरारि वृंद भंजनं।।2।।
मनोज वैरि वंदितं अजादि देव सेवितं,
विशुद्ध बोध विग्रहं समस्त दूषणापहं।
नमामि इंदिरा पतिं सुखाकरं सतां गतिं,
भजे सशक्ति सानुजं शची पति प्रियानुजं।।3।।
त्वदंघ्रि मूल ये नराः भजंति हीन मत्सराः,
पतंति नो भवार्णवे वितर्क वीचि संकुले।
विविक्त वासिनः सदा भजंति मुक्तये मुदा,
निरस्य इंद्रियादिकं प्रयांति ते गतिं स्वकं।।4।।
तमेकमद्भुतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभुं,
जगद्गुरूं च शाश्वतं तुरीयमेव केवलं।
भजामि भाव वल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लभं,
स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहं।।5।।
अनूप रूप भूपतिं नतोऽहभुर्विजा पतिं,
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे।
पठंति ये स्तवं इदं नरादरेण ते पदं,
व्रजंति नाथ संशय तवदीय भक्ति संयुताः।।6।।
।। इति श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदासकृत श्रीरामचन्द्र स्तुतिः सम्पूर्णा।।